Monday 31 July 2017

आरक्षण की राजनीति - Politics of Reservation

What does the word “dalit” means?

As per Wikipedia, the actual meaning of the word 'Dalit' is oppressed. It was first used by Jyotibha Phule (in the 19th century) in the context of the lowest castes in the Hindu caste system which was considered untouchables. 

Dictionary meaning of Dalit (दलित)  in Hindi

1.     जिसका दलन या शोषण हुआ हो
2.     रौंदा या कुचला हुआ 
3.     अति निर्धन; कंगाल 
4.     जो सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक आदिरूपों से पिछड़ा हुआ हो. 



दलित शब्द का उपयोग आज दलितों के उत्थान के लिए कम और एक राजीतिक यंत्र के रुप में ज्यादा किया जाता है। एक समय पर दलितों के जीवन स्तर को सबल बनाने के लिए उन्हें आरक्षण देने की आवश्यकता थी और उन आर्थिक रुप से कमजोर वर्ग को आज भी आरक्षण की जरुरत हो सकती है। लेकिन क्या दलित शब्द के उपरोक्त अर्थों के आधार पर आज  कितने लोग दलित है? यदि हो और अवश्य होंगे, उन्हें आरक्षण का हक देने के विरोध में कोई नही होगा। लेकिन जो संपन्न, और शिक्षित हो चुके है वे क्या इस परिभाषा में आते है? कोई ऐसा है? खासकर बड़े बड़े बाबू, नौकरी पेशा, अधिकारी, डाक्टर, इंजिनीयर, राजनेता? एक आर्थिक और सामाजिक स्तर पर जाने के बाद यह टाइटल इनका वापस नही लेना चाहिए? क्या यह एक स्थाई स्थिति, स्थाई टेग  है जो आदमी कितना भी बड़ा हो जाए , उसके साथ चिपका रहेगा। क्या वह स्थाई तौर पर दलित ही रहेगा। दलित के नाम पर सारी सरकारी सुविधा और अधिकार प्राप्त करेगा। दलित के नाम पर वोट मांगने का हकदार रहेगा चाहे वह कितना ही संपन्न और बड़ा हो जाए, कितने भी उंचे राजनीतिक पद पर पहुंच जाए। क्या यह देश की विडंबना नही है? क्या इस आरक्षण की प्रणाली और कानून पर पुनर्विचार करने की नही है? क्या मापदंड जाति ही होना चाहिए? क्या बदलते हुए परिवेश और एकवीसवी सदी के विश्वपटल पर आगे बढ़ते हुए भारत को जातिगत आधार पर आरक्षण के सिद्धांत को पुनः परिभाषित करने के लिए आगे नही आना चाहिए। क्या दलित शब्द को चुनावी और तुष्टिकरण की  राजनीति के लिए उपयोग करने पर बंधन नही लगना चाहिए? क्या इस परंपरा को जारी रखने से समाज में कभी जांत-पात की दिवार खतम होगी?

भारत की विडंबना यह है कि एक दिवार तो हट नही पाई पर पिछड़ी जाति के नाम पर एक और दिवार राजनीतिज्ञों ने खड़ी कर दी। इस दिवार का घेरा कम होने के बजाय आज बढ़ता ही जा रहा है। समय समय पर कुछ वर्ग जिसमें सम्पन्न वर्ग भी शामील है अपने आपको पिछड़े वर्ग में शामील करने के लिए प्रयत्नरत होकर आंदोलन करने पर तुले हुए है। क्या पिछड़ी जातियों  के लिए बाद में  हुए आरक्षण की नीति पर भी साथ ही  साथ पुनर्विचार नही होना चाहिए ? क्या आरक्षण के लिए केवल आर्थिक कमजोरी एकमात्र मापदंड  नही होना चाहिए? लेकिन ऐसे क्रांतिकारी कदम कौन सी सरकार लेगी, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है। कही कुछ बात की जाती है तो उस पर चिन्तन-मनन होने की जगह ऐसे प्रयासों को दलित विरोधी बताकर राजनीतिक रा टोटियाँ सेंकी जाती है।

भारत में आज जरुरत है मानवता को जांत-पांत की दिवारों से मुक्त करने की। आज जरुरत है सबको एक होकर राष्ट्र निर्माण करने की। आपने शिक्षा का अधिकार और फूड सेक्यूरिटी बिल तो दे दिया लेकिन फिर भी समाज अशिक्षा और भूक के चंगुल में फसा हुआ है। जांत- पांत की खाइयों से बंटा हुआ है। 

हटा दो आज
ये सारी दिवारें
हटा दो आज
जातिभेद की ये लकीरे
हटा दो आज
ये भिन्न भिन्न चेहरे
उठो मानव बनो
तोड़ दो आज

ये सारी जंजीरे

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