अर्जुन जो एक समय युद्ध छोड़कर जीवन यापन के लिए भिक्षा मांगने के लिए तैयार हो गया था, आखिर युद्ध के लिए खड़ा हो गया।
क्यों?
इसलिए नही कि उसे भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर युद्ध के लिए तैयार किया। बल्कि वह अपने स्वतः की इच्छा से अपने विवेक का उपयोग कर युद्ध के लिए प्रेरित हुआ। भगवान कृष्ण तो एक आवाज, एक माध्यम, एक अन्तरआत्मा के द्योतक मात्र थे। इससे यही तत्व निकलता है कि जिन्दगी में कोई मार्ग दर्शक हो सकता है लेकिन अपनी लड़ाई हर एक को स्वयं लड़ना पड़ता है।
यही गीता सार है, यही धर्म हे, यही नीतिधर्म है, यही कर्तव्य है, यही कर्म है, यही कर्मयोग है। इसी में स्वयं का और जगत का हित है।
हर युग में दैवी शक्तियों और आसुरी शक्तियों के बीच सदा से टकराव रहा है। देश-काल के अनुसार इन शक्तियों की मात्रा कम ज्यादा हो सकती है। रावन सतीयुुग में भी था और आज कलियुग में भी है। धृतराष्ट्र और दुर्योधन त्रेतायुग में भी थे और आज कलियुग में भी है। उसी प्रकार भगवान राम भी सतीयुग में थे और कलियुग में भी है। भगवान कृष्ण त्रेतायुग में भी थे और आज कलियुग में भी है।अर्जुन तब भी था, आज भी है। राजनीति उस समय भी थी और आज भी है।
आज के परिपेक्ष में देखा जाए तो भारत भूमि पर आज भी महाभारत का युद्ध चल रहा है। कुछ ताकतें सत्ता के लिए धृतराष्ट्र की तरह अंधे होकर अपने अपने दुर्योधनों को सत्ता की कुर्सी पर बिठाना चाहते है, वही कुछ लोग इनके विरोध में प्रजातांत्रिक तरीके से लड़ने के लिए प्रेरित हो रहे है। सत्ता की होड़ में आसुरी शक्तियां मानसिक रूप से पथभ्रष्ट होकर छ्ल-कपट, लूट, भ्रष्टाचार, समाज को जात पांत, दलित-महादलित, अल्पवर्ग, सवर्ण, आरक्षण-अनारक्षण, हिन्दु-मुस्लिम, और तो और राष्ट्र विरोधी बाहरी ताकतों से भी हाथ मिलाकर देश की जड़े कमजोर कर रहे है। वही कुछ ताकतें इनके विरोध में खड़ी दिखती है। लेकिन इनमें भी दैवी शक्तियां पर्याप्त मात्रा में दिखाई नही देती। कोई बात नही। त्रेतायुग भी कौरव सौ थे और पांडव केवल पांच। अन्तर यही था कि कौरवों के साथ अनीति थी, अधर्म था वही पांडवों के साथ कृष्ण थे, नीति थी, धर्म था।इसके लिए समाज को, देश के नागरिकों को जागरुक होकर दैवी शक्तियों को बलशाली बनाने की जरूरत है। अपने अन्दर स्थित कृष्ण की आवाज सुनना है। नीति और धर्म के पथ पर चलना है। हरेक को अर्जुन बनना है तभी देश का अर्जुन विजयी होगा और कौरवों की भीड़ पराजित होगी।
क्यों?
इसलिए नही कि उसे भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर युद्ध के लिए तैयार किया। बल्कि वह अपने स्वतः की इच्छा से अपने विवेक का उपयोग कर युद्ध के लिए प्रेरित हुआ। भगवान कृष्ण तो एक आवाज, एक माध्यम, एक अन्तरआत्मा के द्योतक मात्र थे। इससे यही तत्व निकलता है कि जिन्दगी में कोई मार्ग दर्शक हो सकता है लेकिन अपनी लड़ाई हर एक को स्वयं लड़ना पड़ता है।
यही गीता सार है, यही धर्म हे, यही नीतिधर्म है, यही कर्तव्य है, यही कर्म है, यही कर्मयोग है। इसी में स्वयं का और जगत का हित है।
हर युग में दैवी शक्तियों और आसुरी शक्तियों के बीच सदा से टकराव रहा है। देश-काल के अनुसार इन शक्तियों की मात्रा कम ज्यादा हो सकती है। रावन सतीयुुग में भी था और आज कलियुग में भी है। धृतराष्ट्र और दुर्योधन त्रेतायुग में भी थे और आज कलियुग में भी है। उसी प्रकार भगवान राम भी सतीयुग में थे और कलियुग में भी है। भगवान कृष्ण त्रेतायुग में भी थे और आज कलियुग में भी है।अर्जुन तब भी था, आज भी है। राजनीति उस समय भी थी और आज भी है।
आज के परिपेक्ष में देखा जाए तो भारत भूमि पर आज भी महाभारत का युद्ध चल रहा है। कुछ ताकतें सत्ता के लिए धृतराष्ट्र की तरह अंधे होकर अपने अपने दुर्योधनों को सत्ता की कुर्सी पर बिठाना चाहते है, वही कुछ लोग इनके विरोध में प्रजातांत्रिक तरीके से लड़ने के लिए प्रेरित हो रहे है। सत्ता की होड़ में आसुरी शक्तियां मानसिक रूप से पथभ्रष्ट होकर छ्ल-कपट, लूट, भ्रष्टाचार, समाज को जात पांत, दलित-महादलित, अल्पवर्ग, सवर्ण, आरक्षण-अनारक्षण, हिन्दु-मुस्लिम, और तो और राष्ट्र विरोधी बाहरी ताकतों से भी हाथ मिलाकर देश की जड़े कमजोर कर रहे है। वही कुछ ताकतें इनके विरोध में खड़ी दिखती है। लेकिन इनमें भी दैवी शक्तियां पर्याप्त मात्रा में दिखाई नही देती। कोई बात नही। त्रेतायुग भी कौरव सौ थे और पांडव केवल पांच। अन्तर यही था कि कौरवों के साथ अनीति थी, अधर्म था वही पांडवों के साथ कृष्ण थे, नीति थी, धर्म था।इसके लिए समाज को, देश के नागरिकों को जागरुक होकर दैवी शक्तियों को बलशाली बनाने की जरूरत है। अपने अन्दर स्थित कृष्ण की आवाज सुनना है। नीति और धर्म के पथ पर चलना है। हरेक को अर्जुन बनना है तभी देश का अर्जुन विजयी होगा और कौरवों की भीड़ पराजित होगी।