आम आदमी के लिए नेताओं को इतना परेशान होते कभी नही देखा था । ऐसा लगता है उनकी रातों की नींद उड़ गई हो, सो नही पा रहे है। कोई दंगे करवाने की बात करता है, कोई बगावत की। कोई आर्थिक आपातकाल कहता है, कोई राष्ट्रपति से गुहार लगाने पहुंच जाता है। कोई बड़ी बड़ी गाड़ियो अपनी सुरक्षा फौज के साथ आकर पुराने नोट बदलने आ जाता है या एटीम में पहुंच जाता है। कोई विमुद्रीकरण् को वापस लेने की माँग करता है। कोई कहता डरा डरा कहता है कहता है कि काम तो सही हुआ है लेकिन तरीका और समय गलत है। आज तो हद हो गई, एक कांग्रेस नेता ने बैंक की लाइन में दुर्भाग्यवश मौतों की पाकिस्तानी आतंकवाद से उरी में सैनिकों की शहादत से तुलना कर दी है।
ये सभी कहते नही थकते है कि ये सब दुध के धुले है। सारे राजा हरिश्चन्द्र से कम इमानदार नही है। लेकिन सच्चाई यह है कि इन राजनेताओं की जमीन काले धन पर टिकी हुई है। इनकी पार्टी का 80% से ज्यादा धन अज्ञात श्रोतों से आता है। ये सभी दल सूचना के अधिकार के कानून के अन्दर नही आना चाहते। चुनावों में मनमाना धन कहाँ से आता है? वोटों की खरीद फरोक्त कहाँ से होती है? इनका व्यक्तिगत काला धन कितना है इन्हें ही पता है? इनकी बेनामी संपति कितनी है? कितना सोना है? विदेशी बैंकों में कितना पैसा छुपाया हुआ है? नेता- बाबू के अपवित्र गठजोड़ तो सर्व विदीत ही है। आजादी के बाद से आज तक के कुतुबमिनार से भी बड़े घोटाले आम जनता से छिपे नही है, कोई चारा खा गया तो कोई कोयला। रक्षा खर्चों में कितना पैसा खाया गया कोई हिसाब नही है। उदाहरण अनगिनत है।
इनकी आम जनता के लिए स्वघोषित व्याकुलता देखते बनती है। यही व्याकुलता देखकर ही लगता है और सिद्ध भी होता है कि तीर सही निशाने पर लगा है। चोट भी सही जगह पर लगी है। आम आदमी तो प्रायः सरकार के कदम से प्रसन्न है। प्रधानमंत्री मोदी के तारीफ़ के पूल भी बांध रहा है। इतनी व्याकुलता इन नेताओं ने सच्चाई से आज तक की होती और सच्चाई से इनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बदलने के लिए की होती तो आज विमुद्रीकरण की जरुरत ही नही होती। भारत विकसित देश की श्रंखला में महत्वपूर्ण स्थान पर होता, इसमें दो राय नही। विमुद्रीकरण एक स्वच्छता अभियान है। इसमें कुछ परेशानी तो होगी। यह परेशानी सीमा पर देश के लिए सीने पर गोली खाने वाले सिपाही की परेशानी से कई गुना छोटी है और कुछ दिनों की है।
जय हिन्द।
ये सभी कहते नही थकते है कि ये सब दुध के धुले है। सारे राजा हरिश्चन्द्र से कम इमानदार नही है। लेकिन सच्चाई यह है कि इन राजनेताओं की जमीन काले धन पर टिकी हुई है। इनकी पार्टी का 80% से ज्यादा धन अज्ञात श्रोतों से आता है। ये सभी दल सूचना के अधिकार के कानून के अन्दर नही आना चाहते। चुनावों में मनमाना धन कहाँ से आता है? वोटों की खरीद फरोक्त कहाँ से होती है? इनका व्यक्तिगत काला धन कितना है इन्हें ही पता है? इनकी बेनामी संपति कितनी है? कितना सोना है? विदेशी बैंकों में कितना पैसा छुपाया हुआ है? नेता- बाबू के अपवित्र गठजोड़ तो सर्व विदीत ही है। आजादी के बाद से आज तक के कुतुबमिनार से भी बड़े घोटाले आम जनता से छिपे नही है, कोई चारा खा गया तो कोई कोयला। रक्षा खर्चों में कितना पैसा खाया गया कोई हिसाब नही है। उदाहरण अनगिनत है।
इनकी आम जनता के लिए स्वघोषित व्याकुलता देखते बनती है। यही व्याकुलता देखकर ही लगता है और सिद्ध भी होता है कि तीर सही निशाने पर लगा है। चोट भी सही जगह पर लगी है। आम आदमी तो प्रायः सरकार के कदम से प्रसन्न है। प्रधानमंत्री मोदी के तारीफ़ के पूल भी बांध रहा है। इतनी व्याकुलता इन नेताओं ने सच्चाई से आज तक की होती और सच्चाई से इनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बदलने के लिए की होती तो आज विमुद्रीकरण की जरुरत ही नही होती। भारत विकसित देश की श्रंखला में महत्वपूर्ण स्थान पर होता, इसमें दो राय नही। विमुद्रीकरण एक स्वच्छता अभियान है। इसमें कुछ परेशानी तो होगी। यह परेशानी सीमा पर देश के लिए सीने पर गोली खाने वाले सिपाही की परेशानी से कई गुना छोटी है और कुछ दिनों की है।
जय हिन्द।
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