Thursday, 26 October 2017

धर्म और अधर्म-Dharma & Adharma

धर्म क्या है? शास्त्रों के अनुसार धर्म मानव जाति का वह गुण, वह व्यवहार और वह चाल चलन है जिससे उसके जीने का तरीका निश्चित होना माना जाता है। धर्म की उत्पति और विकास कैसे हुआ यह शोध का विषय हो सकता है और इस पर विभिन्न मत मतान्तर हो सकते है। लेकिन मूलतः देश, काल और समय की आवश्यकता के फलस्वरूप ही विभिन्न धर्मों की उत्पति हुई होगी। मानव जाति का जैसे जैसे विकास होता गया होगा और उसने बड़े समूहों में निश्चित स्थानों में रहना शुरु किया होगा, तब उसे कुछ विशेष जीवन प्रणाली के अन्तर्गत जीने की कल्पना आई होगी। इसी कल्पना ने आगे चलकर समूहों को सुचारू रुप से चलाने के लिए कुछ विशेष मानव मूल्यों को परिभाषित किया होगा। इन्हीं मानव मूल्यों और उनसे उत्पन्न मान्यताओं ने धर्म का रुप लिया होगा जिसे लोगों ने अंगिकार किया होगा। धर्म के संस्थापक कुछ व्यक्ति विशेष जिन्हें देवता, ऋषि, मुनि, भगवान के संदेश वाहक, पेगम्बर, ईसा मसीह, महावीर, बुद्ध  आदि नामों से जगत जानता है, हो सकते है। इनके बताये हुए रास्ते पर लोग चलने के लिए जुड़ते गए और धर्मों का प्रचार प्रसार होता गया होगा। इन्हीं श्रंखलाओं के फलस्वरूप आज विश्व में हिन्दु, इस्लाम, क्रिश्चियन, जैन, बुद्ध आदि धर्म माने जाते है और इनके असंख्य अनुयायी है। 

PIC: http://indiafacts.org/
हिन्दु शास्त्रों के अनुसार धर्म की परिभाषा कहती है कि धर्म वह व्यवस्था है जिसे धारण किया जा सके। धर्म शब्द एक संस्कृत शब्द है जिसका उचित पर्याय विश्व की अन्य भाषाओँ में मिलना कठिन है। अंग्रेजी भाषा में समीपवर्ती शब्द Righteous duty हो सकता है। भारत के गौतम ऋषि के अनुसार,  "यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः धर्म",  जिसका अर्थ है जिस कार्य करने से अभ्युदय और श्रेष्ठता की सिद्धि हो उसे धर्म  है। यानि जिस कार्य के करने से व्यक्ति का विकास हो और वह श्रेष्ठता प्राप्त करे वह धर्म है।

विश्व के लगभग सभी धर्मों में कुछ सामान्य मानव मुल्यों का एक जैसा समावेश मिलता है। सत्य बोलना, चोरी करना, अपनी वासनाओं को नियंत्रित रखना, क्रोध करना, हिंसा करना, बड़ों का सम्मान करना, एक दुसरे की सहायता करना आदि गुण और मानव मूल्य सभी धर्मों में एक से मिलेंगे। दुसरों के साथ वही व्यवहार करना जो व्यवहार हम चाहते है कि लोग हमारे साथ करे, मानव मूल्यों की पराकाष्ठा है। धर्म इन गुणों से भी आगे की बात करता है। धर्म मानवता, प्रेम, भाईचारा, दया, करुणा, शांति, अहिंसा आदि गुणों से भी आगे जाकर परमेश्वर, गॉड या अल्लाह से जुड़ने का रास्ता दिखाता है। मानव विकास की यात्रा में इन्हीं रास्तों को सरल बनाने के लिए आगे चलकर धर्म के अन्दर पूजा पाठ की पद्धति, रीति, रिवाज , परम्पराए, जीवन दर्शन और उस परम शक्ति जिसे ईश्वर, गॉड, अल्लाह, परमात्मा कुछ भी कह सकते है, से जुड़ने की प्रक्रिया को सम्मिलित किया होगा। इन रीति रिवाज, पूजा पद्धति और भगवद् भक्ति के  विभिन्न  रुपों को अलग अलग धर्मों में भिन्न भिन्न रुप से प्रतिपादित किया होगा। लेकिन इनके पीछे भी सभी धर्मों के ध्येय में एकरुपता ही देखने को मिलती है सभी धर्मों के ध्येय में ईश्वर प्राप्ति, आपस में प्यार, मोहब्बत, सुख और शांति की कामना ही मूलभूत रुप से निहित है। इसका अर्थ तो यही निकलता है कि सारे धर्म मूलतः ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग मात्र है। इन मार्गों पर चलकर सबका गंतव्य स्थान, मंजिल या Destination एक ही है। इस विश्व और ब्रम्हाण्ड, सारे जीव, मानव, पेड़, पौधे आदि सबके रचयिता या जनक एक ही नियन्ता या पिता हो सकता है और वास्तव में एक ही है। ऐसा नही है कि हिन्दु धर्म मानने वाले मानवों को अलग कारखाने के मालिक ने बनाया और उसी तरह इस्लाम, क्रिश्चियन अन्य धर्मों को मानने वाले व्यक्तियों को अलग अलग कारखानों के अलग अलग मालिकों ने बनाया है। हिन्दु भी वही प्राणवायु ग्रहण करता है जो मुस्लिम या अन्य कोई धर्म अनुयायी करता है। सभी धर्मों के अनुयायी वही जल ग्रहण करते है। सबके जन्म लेने के  तरीके से लेकर देहावसान तक की परिभाषा भी एक सी है। सभी के रगों में एक जैसा ही रक्त संचारित होता है। सभी धर्मों का उद्देश्य भी शांति और ईश्वर प्राप्ति ही है। सभी धर्मों में धार्मिक रीति रिवाजों की अनेकताओं के पीछे एकता का समावेश निश्चित रुप से निहित है। 

फिर विभिन्न धर्मों में इतना टकराव क्यों ?  धर्म के नाम पर इतना आतंक और मारकाट क्यों? क्यों इन्सान अपने धर्म को दुसरे धर्म से महान बताने की कोशीस करता है? क्यों दुसरे धर्म के अनुयायियों को अनैतिक लालच, डर और प्रताड़ित कर अपने धर्मों में शामील करना चाहता है। बारीकी से देखा जाए तो कोई भी धर्म एक जीने के तरीके से ज्यादा कुछ भी नही है। क्यों इसे बिना जोर जबरदस्ती के उस व्यक्ति की अपनी स्वतंत्र पसंद या अपनी free  choice पर छोड़ दिया जाए? धर्म के नाम पर या धर्म परिवर्तन के लिए अमानवीय हिन्सा कैसे स्वीकार्य हो सकती है? ऐसा करने वाले अवश्य अधर्म के भागी है। इनका अपने ईश्वर से कोई संबंध नही हो सकता। इतिहास गवाह है कि धर्म के नाम पर ही संसार में सबसे ज्यादा रक्तपात हुआ है। इसका कारण धर्म होकर धर्म के नाम पर हो रहे स्वार्थ की राजनीति और अधर्म के व्यापार के अलावा कुछ नही है। यह धर्म के नाम पर होने वाला सबसे बड़ा पाप है। मानव अपनी मूल मान्यताओं और धर्म की परिभाषा को भूलकर धर्म को अपने स्वार्थ के लिए जब तक उपयोग में लाना नही छोड़ेगा, तब तक धर्म के नाम पर हिंसा, लूट, आतंक और रक्तपात बंद नही होगा। सभी धर्मों के धार्मिक गुरुओं और विश्व के शासनाध्यक्षों को इस विषय में सोचने और मिलकर काम करने की जरूरत है। 

अधर्म की उत्पत्ति के लिए मानव जाति का अहंकार, व्यक्तिगतसामाजिक या राजनैतिक स्वार्थ आदि दुषित सोच जिम्मेदार है। इन कुत्सित विचारों और भावनाओं का किसी भी सच्चे धर्म में समावेश नही हो सकता है। यदि कुछ लोग ऐसा कर रहे है तो वे अपने धर्म और अपने ईश्वर का अपमान कर रहे है।अधर्म की मानसिकता और  सोच का सभ्य समाज द्वारा विरोध करना चाहिए। हरेक को अपने अपने धर्मों की दिवारें तोड़कर इस घिनौनी मानसिकता का घोर विरोध करना आवश्यक है। तभी विश्व में अमन और शांति स्थापित हो सकती है।

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