मै पहले यह कह देना चाहता हूँ कि मै किसी व्यक्ति विशेष या राजनीतिक दल का तथाकथित भक्त नही हूँ। हां, यदि कोई राजनीतिक दल यदि अपनी कथनी और करनी में राष्ट्रभक्ति, सबका विकास, समान हक, समान कानून, भारतीय अस्मिता और भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने के ठोस सबूत दिखाता है तो उस दल या दल के प्रमुख की नीतियों का समर्थन व प्रसंशा करना मेरा स्वधर्म और राष्ट्रधर्म होगा। इसीलिय मैे किसी भी पार्टी के विषय में निष्पक्ष विचार रखने के लिए स्वतंत्र हूँ।
आप कृपया निम्न बातों पर विचार करें।
3. प्रजातांत्रिक व्यवस्था में आज आपके पास अन्य क्या पर्याय है? क्या आप भारत की सत्ता पर एक विषेश परिवार के सदस्यों को ही विराजमान करना चाहते है, जहाँ परिवार के लोगों के अलावा न ही किसी की कोई इज्जत है और न ही किसी अन्य की कोई स्वाभिमान पूर्ण भूमिका रहती है। क्या उस परिवार के उत्तराधिकारियों का, जो सक्षम हो या न हो, प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सत्ता पर अविरल विराजमान रहना पैदायीशी हक है? क्या इस दल में प्रजातांत्रिक मूल्यों का सम्मान है? प्रजातंत्र में आज वे केवल राजनीति के बल पर बेसुमार ऐश्वर्य के स्वामी किस तरह है, क्या यह गरीब जनता के लिए सोचने का विषय नही है? सच तो यह है कि केवल सत्ता की लोलुपता और अथाह संचित धन ही इस दल के लोगों को बांधे रखती है, अन्यथा दल में बिखराव कभी का हो चुका होता।
4. आजादी के सत्तर साल बाद भी जांत-पांत, उंच-नीच और अमीर-गरीब की खाई भर नही पाई, जबकि बढ़ती गई। वोट बेंक और खास वर्गों के तुष्टिकरण की राजनीति फलती फूलती रही है, चाहे देश की जनता भले ही विभिन्न गुटों में बंट जए। 1950 के दशक से आज तक इनके कार्यकाल में अनेकों घोटालें हुए और राष्द्र को एक लूट खसोट और भ्रष्टाचार से भरी शासन व्यवस्था मिली। कुछ लोग, खासकर राजनीति से और व्यवस्था से जुड़े हुए व्यक्ति अथाह सम्पत्ति के मालिक बन बैठे। कइयों ने एक ओर विदेशों में अपनी अथाह काली कमाई संचित की और अनगिनत बेनामी संपत्ति अनुचित तरीके से कमा कर अपनी आने वाली पीटिंयों तक की सुरक्षा निश्चित कर दी वही दुसरी ओर गरीब आदमी और गरीब होता गया। छोटे से छोटे काम से लेकर बड़े बड़े जनता के कामों के लिए रिश्वत आम माने जाने लगी। इन सब सच्चाइयों से तो यही अर्थ निकलता है कि सत्तर साल में इन बुराइयों और कमियों को दूर करने तथा अमीर गरीब की खाई को भरने का काम सही दिशा में नही हुआ। हाँ, भाषणबाजी बहुत हुई जो आज भी जारी है। इसलिए जैसी व्यवस्था अभी तक चल रही थी, उसी को आगे बढ़ाने से अतीत वाला ही नतीजा निकलेगा। इसलिए हम सबको नयी व्यवस्था को उभरने का समय और अवसर देना होगा।
5. वर्तमान सरकार के अलावा भारत की जनता के पास अन्य क्या पर्याय है? क्या कोई एक राज्य स्तरीय दल केन्द्र में सत्ता संभालने के लिए सक्षम है? कदापि नही। क्या कोई तिसरा या चौथा फ्रंट मिलजुल कर एक स्थायी और एक निश्चित दिशा में चलने वाली सरकार कोई पर्याय हो सकती है? अतीत के उदाहरण कहते है कि बांसी खिचड़ी को दुबारा तड़का देकर ठीक नही किया जा सकता। आपका पेट ही खराब होगा। इनकी बेमेल खिचड़ी कभी भी अपनी व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के सामने मिट्टी में मिल सकती है। इसलिए सावधान रहना जरूरी है। साथ ही इन दलों का अपने अपनेे राज्यों में कोई सन्तोषजनक रिपोर्ट कार्ड नही है।
6. अन्ना आंदोलन को एक सीढ़ी मात्र बनाकर एक नया दल दिल्ली में उभरा है और वह अन्य राज्यों में भी अपने हाथ पैर चला रहा है। मोदी लहर के बावजुद उस समय इस नये दल से दिल्ली की जनता को एक साफ सुथरी राजनीति प्रदान करने और एक भ्रष्टाचार मुक्त संतुलित विकास की उम्मीद थी। एक समय पर मै स्वतः इस दल का समर्थक रहा हूँ लेकिन जल्दी ही अन्य दिल्ली वासियों की तरह मेरा इस दल के छलावे पूर्ण चाल चलन और छिछोरी राजनीति से मोह भंग हो गया। हमारे विश्वास को झ्न्होंने इस तरह तोड़ा है कि जनता का आगे से इमानदार राजनीति की बात करने वालों से विश्वास ही उठ गया है। अब उस दल की कथनी औंर करनी का अन्तर काफी स्पष्ट हो चुका है और उनकी विश्वसनीयता पूर्णत: खत्म हो चुकी है। इस दल के पीछे किसका हाथ है यह भी सोचने का विषय लगता है। आगे चलकर यह दल भी उस बांसी खिचड़ी का ही एक खट्टा हिस्सा बन कर रह जायेगा और स्वाद को और बिगाड़ेगा, यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
उपर दी हुई सारी बातें चिन्तन करने लायक है। अपना विवेक तर्कसंगत रुप से उपयोग करने की जरूरत है। निस्पक्ष बनना पड़ेगा। काले को काला और सफेद को सफेद कहीए। रंगीन चश्मा उतारीए। हम सब प्रबुद्ध वर्ग से यही आशा करना उचित होगा कि मोदी सरकार की यदि कोई नीति राष्ट्र विरोधी लगती है तो रचनात्मक विरोध अवश्य करे। गलत ताकतों के साथ होकर राष्ट्र में भ्रम मत फैलाइये। केवल विरोध के लिए विरोध न करें।
सन् 2019 ज्यादा दूर नही है। जनता को अपना मत जाहीर करने का हक तो सामने आयेगा ही।
जय हिन्द।
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