हर महापुरुष के जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना घटती है कि वह घटना उस एक साधारण पुरुष को महापुरुष बना देती है। ऐसी ही एक घटना सन 1848 की है। एक नवयुवक अपने एक ब्राम्हण मित्र के विवाह में शामील होने पहुंचा था। अपने मित्र के निमंत्रण पर वह युवक वहां शादी का जश्न मना ही रहा था कि अपने मित्र के माँ और पिताजी की नजर उस पर पड़ी। उसे देखते ही वे उस युवक पर भभक पड़े। उन्होंने उसे तुरन्त उसे वहां से निकल जाने के लिए कहा।उसे धमकी देते हुए कहाँ कि एक उच्च जाति के विवाह समारोह में एक नीची जाति वाले व्यक्ति की आने की हिम्मत कैसे हुई? अपनी बेइज्जती उस युवक से सहन नही हुई और उसने उसी समय इस उँच नीच और जांति पांती की दिवार को तोड़ने का निश्चय कर लिया। वह युवक और कोई नही था; वह आगे चलकर महात्मा ज्योतीराव गोविन्दराव फूले या संक्षेप में महात्मा ज्योतीबा फूले के नाम से जाना जाने लगा।
ज्योतिराव गोविंदराव फूले 19वीं सदी के एक महान विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता हुए है। उनका जन्म सतारा, महाराष्ट्र में 11 अप्रेल, 1827 को हुआ था। उनके पिताजी, गोविन्दराव फूले जो एक किसान थे और माली जाति से थे जो एक नीची जाति मानी जाती थी। उनकी माँ का नाम चिमनाबाई था। उनका परिवार कई पीढ़ी से सतारा से पुणे आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करता था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग 'फुले' के नाम से जाने जाते थे। उनका उपनाम मूल रूप से गोरे था। जब ज्योति केवल नौ महिने के थे तभी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था। वे पहले भारतीय है जिन्हें उनके समाज सेवा के लिए महात्मा के नाम से शोभित किया गया है।
ज्योतिराव बचपन से ही एक मेधावी और जिज्ञासु छात्र थे लेकिन अपने पिता की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें जल्दी ही अपनी पढ़ाई छोड़ना पड़ा। वे अपने पिता के कृषि कार्यों में मदद करने लगे थे, लेकिन उनकी प्रखर बुद्धी देखकर उनके एक मुस्लिम शिक्षक और क्रिस्चियन पड़ोसी सज्जन ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। प्रखर बुद्धी वाले विद्यार्थी ने जल्दी ही स्कॉटीश मिशन हाई स्कूल, पूना से अपनी मेट्रीक की परीक्षा पास कर ली। वही उनकी मुलाकात सदाशिव गोवाण्डे से हुई जो उनके जीवन काल तक घनिष्ठ मित्र रहे।
मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह सावित्रीबाई नामक एक कन्या से हो गया था।
ज्योतीबा फूले ने उस समय समाज में व्याप्त जांत पांत के नाम पर थोपे हुए बंधन और उँची जाति वाले ब्राम्हण समुदाय द्वारा निम्न जाति के लोगों के शोषण के खिलाफ मोर्चा खोला। सबको समान अधिकारों के लिए उन्होंने लोगों को जाग्रत किया। धार्मिक आडम्बर, छुआछूत और ब्राम्हण जाति के नाम पर अपनी श्रेष्ठता बताने वालों का उन्होंने घोर विरोध किया। 1868 में अपने घर के पास स्थित पानी के कुंए को उन्होंने अछूतों के लिए खोल दिया। उस समय प्रथा ये थी कि उँची जाति वालों के कुंए से अछूत पानी नही भर सकते थे। दोपहर के पहले अछूतों को घर से निकलने पर पाबंदी थी, क्योंकि उस समय तक मनष्यों की छाया लम्बी होती थी, इसलिए अछूत की छाया भूल से भी किसी ब्राम्हण पर ना पड़े। अछूतों को अपने गले से लटकाकर एक मटका लेकर चलना पड़ता था ताकि यदि अछूत को थूकना पड़े तो उस मटके में थूके, रास्ते पर नही। नियम का उल्लंघन करने पर अछूतों को घोर प्रताड़ित किया जाता था। यह सब देखकर उन्हें बहुत दुःख होता था। उन्हें लगा कि इन सब कुरीतियों और अन्याय का मुख्य कारण समाज में व्याप्त अशिक्षा और अज्ञानता है। उसी समय उन्होंने अपनी यह प्रसिद्ध मराठी कविता लिखी;
विद्येविना मती गेली। मतिविना नीती गेली।
नीतिविना गती गेली। गतिविना वित्त गेले।
वित्ताविना शूद्र खचले। इतके अनर्थ एका अविद्येने केले।।
हिन्दी में,
विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी |
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया |
वित्त बिना शूद्र गये, इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किये ||
ज्योतीबा फूले ने स्त्री शिक्षा पर बहुत जोर दिया। उस समय शिक्षा का अधिकार स्त्री जाति को नही था। पुरुष प्रधान उच्च वर्ग व ब्राम्हण समाज में भी लड़कियों को समान अधिकार और शिक्षा के अधिकार प्राप्त नही थे। ज्योतीबा की समझ में नही आता था कि जिस हिन्दु धर्म में देवी सरस्वती को विद्या की देवी माना जाता है उसी धर्म में स्त्रियों को विद्या प्राप्त करने से वंचित कैसे रखा जा सकता है। ज्योतीबा इन बातों से बहुत व्यथित रहते थे और चाहते थे कि स्त्री जाति की भी स्थिति बदले। उन्होंने एक कन्या विद्यालय खोला। इसे उनकी पत्नी सावित्रीबाई ने पूर्ण सहयोग दिया। ज्यातीबा ने पहले अपनी अनपढ़ पत्नी सावित्री को पढ़ाया और बाद में सावित्रीबाई स्वयं शिक्षिका बनकर उस विद्यालय में पढ़ाने लगी। इस तरह सावित्रीबाई फूले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका बनीं।
इन सब बातों से ब्राम्हण लोग ज्योतीबा से बहुत नाराज हुए और उनका घोर विरोध हुआ। उन्हें जान से मारने के भी प्रयत्न किए गए। इन सब विरोधों के कारण ज्यातीबा और सावित्रीबाई को उनके पिताजी ने घर से भी निकाल दिया, पर उन्होंने हिम्मत नही हारी। एक और बात उन्हें परेशान किए जा रही थी वह थी विधवा स्त्रियों की समाज में दयनीय दशा। उस समय प्रायः बाल विवाह होते थे और मृत्यु दर अधिक होने के कारण छोटी छोटी बच्चियाँ भी विधवा हो जाती थी। इन बालिका विधवावों के सिर मुंडवाकर उन्हें उनके हाल पर दर्दनाक जीवन जीने के लिए छोड़ दिया जाता था। कभी कभी कुछ विधवायें गर्भवती भी होती थी, या किसी की काम पिपासा से बाद में गर्भवती हो जाती थी और बाद में उनके बच्चे भी हो जाते थे, जिसका समाज पूरी तरह बहिस्कार करता था। ज्योतीबा ने ऐसी विधवावों के लिए एक आश्रम खोल दिया और साथ ही अनाथ बच्चों के लिए एक अनाथालय भी खोला। ज्यातीबा और सावित्रीबाई ने एक ब्राम्हण वर्ग की विधवा के बच्चे को स्वयं गोद ले लिया और उसे अपने बच्चे की तरह पाला। उन्होने विधवा विवाह को भी बढ़ावा दिया।.
१८७३ में इन्होने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। उन्होंने समाज में व्याप्त गलत धारणायें और मान्यताओं को योजनाबद्ध तरीके से बदलने के प्रयत्न किए। समाज में उंच-नीच, छूत-अछूत की भावना को खत्म कर समानता स्थापित करने के लिए कार्य किए। उन्होने हिन्दुओं के पुराणों, वेदों आदि का विरोध किया और ब्राम्हणों को असामनता की दिवारें खड़ी करने और निम्न जाती के लोगों के शोषण और उन पर अत्याचार के लिए दोषी ठहराया। उन्होने अपना पूर्ण जीवन अछूतों के उद्धार और ब्राम्हणों के अत्याचार से उनकी मुक्ति के लिए लगा दिया।
सन 1888 में वे लकवे की बिमारी से ग्रसित हुए और लम्बी अस्वस्थता के बाद 28 नवम्बर 1890 को इस भारत के सच्चे सपूत और प्रथम महात्मा के नाम से जाने जाने वाले व्यक्ति महात्मा ज्योतिराव फूले का स्वर्गवास हो गया।
महात्मा ज्योतिराव फूूलेजी द्वारा लिखी प्रसिद्ध पुस्तक "गुलामगिरि" बहुत ही क्रांतिकारी, तर्कसंगत और विज्ञान की कसौटी पर खरा लेखन है।इसे पढ़कर हमारी कई मान्यताए और अंध विश्वास जाता रहेगा। भारतीय समाज की आज विडंबना यही है कि फूलेजी के महाप्रयाण के करीब 125 वर्ष बाद भी हम छूआ- छूत और उँच-नीच की दिवारों में बंधे है। निर्माता द्वारा एक जैसा शरीर और रक्त पाने के बाद भी हम लोग छोटे-बड़े के भेदभाव से ग्रसित है। और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इन विषमताओं और भेदवावों को मिटाकर समानता स्थापित करने के बजाय इन्हें प्रोत्साहन देकर राजनीति और सत्ता पाने के हथियार के रुप में उपयोग में लाते है।
ज्योतिराव गोविंदराव फूले 19वीं सदी के एक महान विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता हुए है। उनका जन्म सतारा, महाराष्ट्र में 11 अप्रेल, 1827 को हुआ था। उनके पिताजी, गोविन्दराव फूले जो एक किसान थे और माली जाति से थे जो एक नीची जाति मानी जाती थी। उनकी माँ का नाम चिमनाबाई था। उनका परिवार कई पीढ़ी से सतारा से पुणे आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करता था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग 'फुले' के नाम से जाने जाते थे। उनका उपनाम मूल रूप से गोरे था। जब ज्योति केवल नौ महिने के थे तभी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था। वे पहले भारतीय है जिन्हें उनके समाज सेवा के लिए महात्मा के नाम से शोभित किया गया है।
ज्योतिराव बचपन से ही एक मेधावी और जिज्ञासु छात्र थे लेकिन अपने पिता की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें जल्दी ही अपनी पढ़ाई छोड़ना पड़ा। वे अपने पिता के कृषि कार्यों में मदद करने लगे थे, लेकिन उनकी प्रखर बुद्धी देखकर उनके एक मुस्लिम शिक्षक और क्रिस्चियन पड़ोसी सज्जन ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। प्रखर बुद्धी वाले विद्यार्थी ने जल्दी ही स्कॉटीश मिशन हाई स्कूल, पूना से अपनी मेट्रीक की परीक्षा पास कर ली। वही उनकी मुलाकात सदाशिव गोवाण्डे से हुई जो उनके जीवन काल तक घनिष्ठ मित्र रहे।
मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह सावित्रीबाई नामक एक कन्या से हो गया था।
ज्योतीबा फूले ने उस समय समाज में व्याप्त जांत पांत के नाम पर थोपे हुए बंधन और उँची जाति वाले ब्राम्हण समुदाय द्वारा निम्न जाति के लोगों के शोषण के खिलाफ मोर्चा खोला। सबको समान अधिकारों के लिए उन्होंने लोगों को जाग्रत किया। धार्मिक आडम्बर, छुआछूत और ब्राम्हण जाति के नाम पर अपनी श्रेष्ठता बताने वालों का उन्होंने घोर विरोध किया। 1868 में अपने घर के पास स्थित पानी के कुंए को उन्होंने अछूतों के लिए खोल दिया। उस समय प्रथा ये थी कि उँची जाति वालों के कुंए से अछूत पानी नही भर सकते थे। दोपहर के पहले अछूतों को घर से निकलने पर पाबंदी थी, क्योंकि उस समय तक मनष्यों की छाया लम्बी होती थी, इसलिए अछूत की छाया भूल से भी किसी ब्राम्हण पर ना पड़े। अछूतों को अपने गले से लटकाकर एक मटका लेकर चलना पड़ता था ताकि यदि अछूत को थूकना पड़े तो उस मटके में थूके, रास्ते पर नही। नियम का उल्लंघन करने पर अछूतों को घोर प्रताड़ित किया जाता था। यह सब देखकर उन्हें बहुत दुःख होता था। उन्हें लगा कि इन सब कुरीतियों और अन्याय का मुख्य कारण समाज में व्याप्त अशिक्षा और अज्ञानता है। उसी समय उन्होंने अपनी यह प्रसिद्ध मराठी कविता लिखी;
विद्येविना मती गेली। मतिविना नीती गेली।
नीतिविना गती गेली। गतिविना वित्त गेले।
वित्ताविना शूद्र खचले। इतके अनर्थ एका अविद्येने केले।।
हिन्दी में,
विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी |
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया |
वित्त बिना शूद्र गये, इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किये ||
ज्योतीबा फूले ने स्त्री शिक्षा पर बहुत जोर दिया। उस समय शिक्षा का अधिकार स्त्री जाति को नही था। पुरुष प्रधान उच्च वर्ग व ब्राम्हण समाज में भी लड़कियों को समान अधिकार और शिक्षा के अधिकार प्राप्त नही थे। ज्योतीबा की समझ में नही आता था कि जिस हिन्दु धर्म में देवी सरस्वती को विद्या की देवी माना जाता है उसी धर्म में स्त्रियों को विद्या प्राप्त करने से वंचित कैसे रखा जा सकता है। ज्योतीबा इन बातों से बहुत व्यथित रहते थे और चाहते थे कि स्त्री जाति की भी स्थिति बदले। उन्होंने एक कन्या विद्यालय खोला। इसे उनकी पत्नी सावित्रीबाई ने पूर्ण सहयोग दिया। ज्यातीबा ने पहले अपनी अनपढ़ पत्नी सावित्री को पढ़ाया और बाद में सावित्रीबाई स्वयं शिक्षिका बनकर उस विद्यालय में पढ़ाने लगी। इस तरह सावित्रीबाई फूले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका बनीं।
इन सब बातों से ब्राम्हण लोग ज्योतीबा से बहुत नाराज हुए और उनका घोर विरोध हुआ। उन्हें जान से मारने के भी प्रयत्न किए गए। इन सब विरोधों के कारण ज्यातीबा और सावित्रीबाई को उनके पिताजी ने घर से भी निकाल दिया, पर उन्होंने हिम्मत नही हारी। एक और बात उन्हें परेशान किए जा रही थी वह थी विधवा स्त्रियों की समाज में दयनीय दशा। उस समय प्रायः बाल विवाह होते थे और मृत्यु दर अधिक होने के कारण छोटी छोटी बच्चियाँ भी विधवा हो जाती थी। इन बालिका विधवावों के सिर मुंडवाकर उन्हें उनके हाल पर दर्दनाक जीवन जीने के लिए छोड़ दिया जाता था। कभी कभी कुछ विधवायें गर्भवती भी होती थी, या किसी की काम पिपासा से बाद में गर्भवती हो जाती थी और बाद में उनके बच्चे भी हो जाते थे, जिसका समाज पूरी तरह बहिस्कार करता था। ज्योतीबा ने ऐसी विधवावों के लिए एक आश्रम खोल दिया और साथ ही अनाथ बच्चों के लिए एक अनाथालय भी खोला। ज्यातीबा और सावित्रीबाई ने एक ब्राम्हण वर्ग की विधवा के बच्चे को स्वयं गोद ले लिया और उसे अपने बच्चे की तरह पाला। उन्होने विधवा विवाह को भी बढ़ावा दिया।.
१८७३ में इन्होने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। उन्होंने समाज में व्याप्त गलत धारणायें और मान्यताओं को योजनाबद्ध तरीके से बदलने के प्रयत्न किए। समाज में उंच-नीच, छूत-अछूत की भावना को खत्म कर समानता स्थापित करने के लिए कार्य किए। उन्होने हिन्दुओं के पुराणों, वेदों आदि का विरोध किया और ब्राम्हणों को असामनता की दिवारें खड़ी करने और निम्न जाती के लोगों के शोषण और उन पर अत्याचार के लिए दोषी ठहराया। उन्होने अपना पूर्ण जीवन अछूतों के उद्धार और ब्राम्हणों के अत्याचार से उनकी मुक्ति के लिए लगा दिया।
सन 1888 में वे लकवे की बिमारी से ग्रसित हुए और लम्बी अस्वस्थता के बाद 28 नवम्बर 1890 को इस भारत के सच्चे सपूत और प्रथम महात्मा के नाम से जाने जाने वाले व्यक्ति महात्मा ज्योतिराव फूले का स्वर्गवास हो गया।
महात्मा ज्योतिराव फूूलेजी द्वारा लिखी प्रसिद्ध पुस्तक "गुलामगिरि" बहुत ही क्रांतिकारी, तर्कसंगत और विज्ञान की कसौटी पर खरा लेखन है।इसे पढ़कर हमारी कई मान्यताए और अंध विश्वास जाता रहेगा। भारतीय समाज की आज विडंबना यही है कि फूलेजी के महाप्रयाण के करीब 125 वर्ष बाद भी हम छूआ- छूत और उँच-नीच की दिवारों में बंधे है। निर्माता द्वारा एक जैसा शरीर और रक्त पाने के बाद भी हम लोग छोटे-बड़े के भेदभाव से ग्रसित है। और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इन विषमताओं और भेदवावों को मिटाकर समानता स्थापित करने के बजाय इन्हें प्रोत्साहन देकर राजनीति और सत्ता पाने के हथियार के रुप में उपयोग में लाते है।
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