अपने स्कूल के दिनों में एक महापुरुष के जीवन का एक प्रसंग पढ़ा था, जो आज भी अपने मस्तिष्क के पटल पर अंकित है। प्रसंग उन्नीसवीं सदी का है। एक संभ्रात दिखने वाला युवक जो बहुत अच्छे कपड़े पहने कलकत्ता से वर्दवान रेलगाड़ी में बैठकर जा रहा था। वर्दवान पहुंचकर उस युवक ने अपना सामान गाड़ी से उतारा और वह कुली ढुंढने के लिए इधर उधर नजर दौड़ाने लगा। उसने कुली.. कुली.. आवाज भी लगाई। तभी देखा एक साधारण से कपड़े पहना व्यक्ति उसी गाड़ी से उतर कर उस युवक की ओर चला आ रहा है।उस व्यक्ति ने कहा कि इस स्टेशन पर कोई कुली नही है, लेकिन मै आपका सामान लेकर चलुंगा। यह सुनकर युवक बहुत खुश हुआ और उसे कहा कि वह सामान ले चले, उसे उचित मेहनताना मिलेगा। उस साधारण दिखने वाले व्यक्ति ने उस युवक का सामान अपने सिर पर उठाकर उसके गन्तव्य स्थान पर पहुचा दिया। वहाँ पहुचकर उस युवक ने उस व्यक्ति को मेहनताने के रुप में कुछ पैसे देने चाहे पर उस व्यक्ति ने पैसे लेने से साफ मना कर दिया और वहा से वापस चला गंया।
वर्दमान में अगले दिन एक आम सभा का आयोजन था जिसमें किसी महापुरूष का स्वागत होना था। उस सभा में वह युवक भी उपस्थित था। मंच पर स्वागत के लिए जब उस महापुरुष को बुलाया गया, उसे देखकर वह युवक हक्का बक्का रह गया। उसने देखा कि वह महापुरुष और कोई नही था बल्कि वही व्यक्ति था जिसने कल उसका सामान उठाकर उसके निवास पर पहुचाया था। यह जानकर वह युवक बहुत शर्मिंन्दगी अनुभव कर रहा था। उसने उस महापुरूष से क्षमायाचना करने का निर्णय लिया। सभा की समाप्ति पर वह युवक उस महापुरूष के घर गया और उसके पैरों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा। उस महापुरुष ने उस युवक को अपने गले से लगाया और उपदेश दिया कि मनुष्य को अपना कोई भी काम स्वयं ही करना चाहिए।
वह महापुरुष कौन था आप अच्छी तरह समझ गए होंगे। वे महापुरुष थे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म 26 सितम्बर 1820 को बंगाल के बिरसिंग नामक गाँव, जो आज का पश्चिमी मिदनापुर है, में हुआ था। उनका मूल नाम ईश्वरचन्द्र बंद्योपाध्याय था। उनके पिता का नाम ठाकुरदास बंद्योपाध्याय और माता का नाम भगवति देवी था। विद्यासागर, जिसका अर्थ है विद्या के सागर, इस उपाधि से 1839 में उन्हें संस्कृत महाविद्यालय से स्नातक की पदवी दर्शन और संस्कृत की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ प्राप्त करने के कारण शोभित किया गया था। विद्यासागर अपने समय के महान दार्शनिक, शिक्षाविद, लेखक, प्रकाशक, समाज सुधारक और समाज सेवक हो गए। वे स्त्री शिक्षा के प्रोत्साहक थे और उन्होंने महिलाओं को समान हक देने और उनकी स्थिति सुधारने के लिए के लिए अथक प्रयास किए। उनके प्रयास के कारण ही बालविवाह को प्रतिबंधित करने वाला ‘सिव्हिल मॅरेज अॅक्ट’ कानून लागु होने पाया था। शिक्षा प्रणाली के सुधार के लिए उन्होंने कई कार्य किए, जिनमें प्रमुख है बंगाल के सभी जिलों में बीस आदर्श विद्यालय खोलना है जिसमें विशुद्ध भारतीय शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के लिए भी 35 विशेष पाठशालाए खोली। उनका कहना था कि देश के समग्र विकास के लिए स्त्री शिक्षा की अति आवश्यकता है। उस समय संस्कृत महाविद्यालयों में केवल उंची जाति के लोगों को ही प्रवेश दिया जाता था। उन्होने इस प्रथा का कड़ा विरोध किया। वे हर जाति के लिए समान शिक्षा के अधिकार के प्रेरणा श्रोत थे। वे ब्रह्म समाज नामक संस्था के सदस्य थे। स्त्री की शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने विधवा विवाह और विधवाओ की दशा सुधारने का काम भी किया। इस महान कार्य को आगे बढ़ाने के लिए समाज का घोर विरोध और कई व्यक्तिगत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
इस महान दार्शनिक, समाज सुधारक और शिक्षाविद का स्वर्गवास 29 जुलाई सन्1891 को हुआ। लेकिन ऐसी महान आत्मा हमेशा देश और समाज के बीच अपने महान संदेशाे के रूप में विद्यमान रहती है। ऐसी पुण्यात्मा को शत् शत् नमन।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागरजी के कुछ प्रेरणादायक विचार पाठकों के लाभार्थ निचे प्रस्तुत किए जा रहे है;
1. अपने हित से पहले, समाज और देश के हित को देखना एक विवेक युक्त सच्चे नागरिक का धर्म होता है।
2. दुसरो के कल्याण से बढ कर, दुसरा और कोई नेक काम और धर्म नही होता।
3. जो मनुष्य संयम के साथ, विर्द्याजन करता है, और अपने विद्या से सब का परोपकार करता है। उसकी पूजा सिर्फ इस लोक मे नही वरन परलोक मे भी होती है।
4. संयम विवेक देता है, ध्यान एकाग्रता प्रदान करता है। शांति, सन्तुष्टी और परोपकार मनुष्यता देती है।
5. जो नास्तिक हैं उनको वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भगवान में विश्वाश करना चाहिए इसी में उनका हित है।
6. विद्या" सबसे अनमोल 'धन' है; इसके आने मात्र से ही सिर्फ अपना ही नही अपितु पूरे समाज का कल्याण होता है।
7. संसार मे सफल और सुखी वही लोग हैं, जिनके अन्दर "विनय" हो और विनय विद्या से ही आती है।
8. समस्त जीवोंं मेंं मनुष्य सर्वश्रेष्ठ बताया गया है; क्यूंकि उसके पास आत्मविवेक और आत्मज्ञान है।
9. कोई मनुष्य अगर बङा बनना चाहता है, तो छोटे से छोटा काम भी करे, क्यूंकि स्वावलम्बी ही श्रेष्ठ होते है।
10. मनुष्य कितना भी बङा क्यो न बन जाए उसे हमेशा अपना अतीत याद करते रहना चाहिए।
11. जो व्यक्ति दुसरो के काम मे न आए, वास्तव मे वो मनुष्य नही है।
12. अगर सफल और प्रतिष्ठित बनना है, तो झुकना सीखो। क्यूंकि जो झुकते नही, समय की हवा उन्हे झुका देती है।
13. एक मनुष्य का सबसे बङा कर्म दुसरो की भलाई, और सहयोग होना चाहिए; जो एक सम्पन्न राष्ट्र का निमार्ण करता हैै।
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वर्दमान में अगले दिन एक आम सभा का आयोजन था जिसमें किसी महापुरूष का स्वागत होना था। उस सभा में वह युवक भी उपस्थित था। मंच पर स्वागत के लिए जब उस महापुरुष को बुलाया गया, उसे देखकर वह युवक हक्का बक्का रह गया। उसने देखा कि वह महापुरुष और कोई नही था बल्कि वही व्यक्ति था जिसने कल उसका सामान उठाकर उसके निवास पर पहुचाया था। यह जानकर वह युवक बहुत शर्मिंन्दगी अनुभव कर रहा था। उसने उस महापुरूष से क्षमायाचना करने का निर्णय लिया। सभा की समाप्ति पर वह युवक उस महापुरूष के घर गया और उसके पैरों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा। उस महापुरुष ने उस युवक को अपने गले से लगाया और उपदेश दिया कि मनुष्य को अपना कोई भी काम स्वयं ही करना चाहिए।
वह महापुरुष कौन था आप अच्छी तरह समझ गए होंगे। वे महापुरुष थे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म 26 सितम्बर 1820 को बंगाल के बिरसिंग नामक गाँव, जो आज का पश्चिमी मिदनापुर है, में हुआ था। उनका मूल नाम ईश्वरचन्द्र बंद्योपाध्याय था। उनके पिता का नाम ठाकुरदास बंद्योपाध्याय और माता का नाम भगवति देवी था। विद्यासागर, जिसका अर्थ है विद्या के सागर, इस उपाधि से 1839 में उन्हें संस्कृत महाविद्यालय से स्नातक की पदवी दर्शन और संस्कृत की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ प्राप्त करने के कारण शोभित किया गया था। विद्यासागर अपने समय के महान दार्शनिक, शिक्षाविद, लेखक, प्रकाशक, समाज सुधारक और समाज सेवक हो गए। वे स्त्री शिक्षा के प्रोत्साहक थे और उन्होंने महिलाओं को समान हक देने और उनकी स्थिति सुधारने के लिए के लिए अथक प्रयास किए। उनके प्रयास के कारण ही बालविवाह को प्रतिबंधित करने वाला ‘सिव्हिल मॅरेज अॅक्ट’ कानून लागु होने पाया था। शिक्षा प्रणाली के सुधार के लिए उन्होंने कई कार्य किए, जिनमें प्रमुख है बंगाल के सभी जिलों में बीस आदर्श विद्यालय खोलना है जिसमें विशुद्ध भारतीय शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के लिए भी 35 विशेष पाठशालाए खोली। उनका कहना था कि देश के समग्र विकास के लिए स्त्री शिक्षा की अति आवश्यकता है। उस समय संस्कृत महाविद्यालयों में केवल उंची जाति के लोगों को ही प्रवेश दिया जाता था। उन्होने इस प्रथा का कड़ा विरोध किया। वे हर जाति के लिए समान शिक्षा के अधिकार के प्रेरणा श्रोत थे। वे ब्रह्म समाज नामक संस्था के सदस्य थे। स्त्री की शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने विधवा विवाह और विधवाओ की दशा सुधारने का काम भी किया। इस महान कार्य को आगे बढ़ाने के लिए समाज का घोर विरोध और कई व्यक्तिगत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
इस महान दार्शनिक, समाज सुधारक और शिक्षाविद का स्वर्गवास 29 जुलाई सन्1891 को हुआ। लेकिन ऐसी महान आत्मा हमेशा देश और समाज के बीच अपने महान संदेशाे के रूप में विद्यमान रहती है। ऐसी पुण्यात्मा को शत् शत् नमन।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागरजी के कुछ प्रेरणादायक विचार पाठकों के लाभार्थ निचे प्रस्तुत किए जा रहे है;
1. अपने हित से पहले, समाज और देश के हित को देखना एक विवेक युक्त सच्चे नागरिक का धर्म होता है।
2. दुसरो के कल्याण से बढ कर, दुसरा और कोई नेक काम और धर्म नही होता।
3. जो मनुष्य संयम के साथ, विर्द्याजन करता है, और अपने विद्या से सब का परोपकार करता है। उसकी पूजा सिर्फ इस लोक मे नही वरन परलोक मे भी होती है।
4. संयम विवेक देता है, ध्यान एकाग्रता प्रदान करता है। शांति, सन्तुष्टी और परोपकार मनुष्यता देती है।
5. जो नास्तिक हैं उनको वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भगवान में विश्वाश करना चाहिए इसी में उनका हित है।
6. विद्या" सबसे अनमोल 'धन' है; इसके आने मात्र से ही सिर्फ अपना ही नही अपितु पूरे समाज का कल्याण होता है।
7. संसार मे सफल और सुखी वही लोग हैं, जिनके अन्दर "विनय" हो और विनय विद्या से ही आती है।
8. समस्त जीवोंं मेंं मनुष्य सर्वश्रेष्ठ बताया गया है; क्यूंकि उसके पास आत्मविवेक और आत्मज्ञान है।
9. कोई मनुष्य अगर बङा बनना चाहता है, तो छोटे से छोटा काम भी करे, क्यूंकि स्वावलम्बी ही श्रेष्ठ होते है।
10. मनुष्य कितना भी बङा क्यो न बन जाए उसे हमेशा अपना अतीत याद करते रहना चाहिए।
11. जो व्यक्ति दुसरो के काम मे न आए, वास्तव मे वो मनुष्य नही है।
12. अगर सफल और प्रतिष्ठित बनना है, तो झुकना सीखो। क्यूंकि जो झुकते नही, समय की हवा उन्हे झुका देती है।
13. एक मनुष्य का सबसे बङा कर्म दुसरो की भलाई, और सहयोग होना चाहिए; जो एक सम्पन्न राष्ट्र का निमार्ण करता हैै।
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