Monday 19 November 2018

तुलसी विवाह

कर्म फल से कोई नही बच सकता। देवता भी नही। तुलसी विवाह से प्रचलित कहानी यह बात सिद्ध करती है।



कहानी भगवान राम के जन्म काल से भी पहले की है। उस समय जलन्धर नामक अत्यंत बलशाली राक्षस बड़ा उत्पाती था। उसके उत्पात से देवतागण भी परेशान थे। जलन्धर का वध करना किसी के बस में नही था। इसका कारण था, उसकी पत्नी, वृन्दा का पतिव्रत धर्म। उसके पतिव्रत धर्म के प्रभाव के कारण ही जलन्धर पर विजय पाना किसी के लिए भी अत्यंत कठीन था। इसके उपाय के लिए परेशान देवतागण भगवान श्रीविषणु के पास गये और सहायता मांगी। देवतागणों को बचाने का विष्णुजी को कोई उपाय समझ में नही आ रहा था, सिवाय पतिव्रता वृन्दा का पतिव्रत धर्म भंग करने के।

यह काम भी इतना आसान नही था। छ्ल कपट का सहारा लेना पड़ा। एक योजना के तहत देवताओं ने जलन्धर को युद्ध के लिए ललकारा और उधर भगवान विष्णु जलन्धर का रुप लेकर वृन्दा के पास जा पहुंचे। वहां उन्होंने वृन्दा को छूकर उसका पतिव्रत धर्म भंग किया। उसके परिणाम स्वरुप उसी समय उधर युद्ध में जलन्धर पराजीत होकर मारा गया और उसका सिर कटकर वृन्दा के समक्ष जा गिरा। यह देखकर वृन्दा ने जलन्धर के रुप में सामने खड़े व्यक्ति की पहचान जानना चाहा। वह क्या देखती है, उसके सामने साक्षात विष्णु खड़े थे।  क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को श्राप दिया। उसने कहा जैसे तुमने छल से मेरे पति की हत्या कर मुझे पति वियोग दिया वैसे ही तुम्हें भी पत्नी वियोग सहना पड़ेगा। तुम्हारी पत्नी का भी छ्ल से हरण किया जायेगा और तुम्हें पत्नी वियोग में तड़पना पड़ेगा। इसके लिए तुम्हें पृथ्वी पर मानव जन्म लेना पड़ेगा। इसके पश्चात वृन्दा अपने पति के शरीर साथ चीता में प्रवेश कर सती हो गई और परमात्मा में विलीन हो गई। वहां एक पौधा निकला जिसे तुलसी का नाम दिया गया। वृन्दा के सतीत्व की याद में ही हर वर्ष तुलसी का विवाह श्री विष्णुजी के साथ किया जाता है।

वृन्दा के श्राप के फलस्वरुप भगवान विष्णु को पृथ्वी पर अयोध्या में राजा दशरथ के पुत्र राम के रुप में मानव अवतार लेना पड़ा। वनवास के समय लंकाधिपति रावण के द्वारा सीता का छ्लपूर्वक हरण किये जाने पर पत्नी वियोग सहना पड़ा।

यह भगवान विष्णु को वृन्दा का श्राप मानें या कर्मफल माने, दोनों एक ही बात है। कर्मफल से किसी का बचना असंभव है। देवताओं के लिए भी नही।

एक कहानी यह भी है कि वृन्दा ने विष्णुजी को उसके साथ छ्ल करने के लिए श्राप दिया था कि तुम पत्थर बन जाओगे। उस पत्थर को शालीग्राम का नाम दिया गया। देवताओं के आग्रह पर वृन्दा ने अपना श्राप वापस लिया और भगवान विष्णु पुनः प्रकट हुए। उन्होंने वृन्दा से कहा कि तुम्हारे सतीत्व का मै सम्मान करता हूं। तुम तुलसी का पौधा बनकर हमेशा मेरे साथ रहोगी। उस समय से हर वर्ष तुलसी का विवाह शालीग्राम के साथ सम्पन्न किया जाता है। इसलिए बिना तुलसी दल के विष्णुजी की पूजा अधूरी मानी जाती है।

आज भी उसी परम्परा की पुनरावृती है। कार्तिक माह की एकादशी को हिन्दु धर्म को मानने वाले तुलसी के पौधे की भगवान शालीग्राम याने श्री विष्णुजी के साथ सम्पन्न करते है।

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