Saturday 21 January 2017

Indian Spirituality & Politics ...भारतीय अध्यात्म और राजनीति

प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी विचारक व नेता श्री राममनोहर लोहिया ने कहा था कि राजनीति अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीति है..आज जब धर्म और राजनीति दोनों का ह्रास जारी है ...ईमानदारी,नैतिकता और सुचिता जैसे शब्द तो बीते समय की बातें हो गयीं हैं....आज  जब गुड पालिटिक्स और बैड पालिटिक्स का समय है तब हमें अपनी चेतना को जगाकर अपने राजनीतिक विचार पर मंथन करना पड़ेगा।  हम समुन्द्र मंथन नहीं वैचारिक मंथन करेंगे।

क्या आज राजनीति और धर्म में कोई संबंध है, कोई कड़ी है?

धर्म को राजनीति के लिए उपयोग में बल्कि दुरुपयोग में जरुर लाया जाता है, लेकिन किसी भी धर्म के मूलभूत सिद्धातों को दरकिनार कर दिया जाता है। Spirituality या आध्यात्मिकता  तो धर्म से भी आगे का मार्ग प्रकाशित करती है, जहां मानव  भौतिकता से उपर उठकर स्वयं और स्वयं में स्थित स्वयं के श्रोत की अविरल प्रकाश की धारा  की ओर यात्रा में लीन होता है। इस लीनता को कोई मोक्ष कहता है तो कोई ईश्वर प्राप्ति। धार्मिक रीति रिवाज और अनुष्ठान एक गंतव्य स्थान तक पहुंचने के साधन हो सकते है लेकिन वे पड़ाव कदापि नही हैं।

यहां मै अन्य धर्मों का यथोचित सम्मान करते हुए हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार आध्यात्मिकता (Spirituality) पर संक्षिप्त में प्रकाश डालना चाहुंगा। इसके अनुसार इसमें किसी पारंपरिक  संस्थागत दिशा निर्देश अथवा किसी एक धार्मिक विधान का प्रावधान नही है, और न ही किसी एक धार्मिक ग्रंथ को स्वीकार्य करने का बंधन है। इसके अंतर्गत एक स्वतंत्र, बंधन मुक्त आत्म चिंतन और स्वतः की खोज और स्वतः की खोज द्वारा ईश्वर पाप्ति व मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया गया है। मै कौन हूँ, मैं कहाँ से आया हूँ, मुझे कहा जाना है, इस प्रकार के प्रश्न मनुष्य को अपनी पहचान खोजने की ओर अग्रसर करती है, और यही से आध्यात्मिकता का मार्ग आगे जाता है। इसी खोज में मनुष्य दुसरे व्यक्तियों में भी अपने आपको एवं ईश्वर को देखने लगता है। इसी मार्ग पर चलकर वह आत्म अनुभूति पाता है हर व्यक्ति या वस्तु में ईश्वर के विद्यमान होने के निष्कर्ष पर पहुंचता है। परिणाम स्वरूप उसके अन्दर छिपे हुए अनेकों दुर्गुण और विसंगतियां जैसे काम, क्रोध, लोभ, मत्सर, हिंसा, किसी को पीड़ा देना, किसी को धोका देना, छ्ल कपट,  किसी की निंदा करना आदि बुराइयों को छोड़ने लगता है। उसका व्यवहार साधुत्व अपना लेता है। वह नहीं चाहता कि दुसरों के साथ वह व्यवहार करें, जो उसे अपने स्वयं के साथ अप्रिय लगे। यदि सारे धर्मों का सार भी निकालकर देखा जाए तो यही पिछले दो तीन वाक्यों म वर्णित कथनों और अन्य धर्मों में निहीत अध्यात्म से कोई विरोधाभास नही होना चाहिए।

अब राजनीति पर आते है।

राजनीति क्या है? राजनीति सरल रुप से देखा जाए तो एक व्यवस्था प्रणाली है। इसके अन्तर्गत एक व्यवस्था द्वारा मौलिक व वैचारिक स्वतंत्रता, न्याय, सम्पत्ति, अधिकार, कानून तथा  कानून को लागू करने की प्रक्रिया शामील है। वैध, अवैध की परिभाषा, कानून के उलंघन पर दंड का प्रावधान, नागरिकों के अधिकार, उनके जान माल की रक्षा करना, समाज में सभी को समान अधिकार और प्रगति के अवसर प्रदान करना, समाज में शांति बनाए रखना, राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा करना, प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण करना आदि अनेकों कार्य कलाप आते है। ये सब कार्य संविधान के ढांचे के अन्तर्गत निहीत प्रावधानों के अनुसार किए जाते है। कहते है इसी प्रकार की शासन व्यवस्था जो राजा से लेकर एक रंक तक समान रूप से राम राज्य में विद्यमान और प्रचलित होने के कारण ही राम ने स्वतः अपने लिए चौदह वर्ष के वनवास को अंगीकार किया था।

आध्यात्मिकता या आध्यात्मिक दर्शन में जैसे सत्य और स्वतः की खोज निहीत है, वैसे ही राजीतिक दर्शन और चिंतन में भी सत्य की खोज होना चाहिए। अध्यात्मिक दर्शन जिस तरह मनुष्य को साधुत्व की ओर ले जाता है, ठीक उसी प्रकार राजनीतिक दर्शन को भी राजनेताओं को निस्वार्थ जन सेवा की तरफ ले जाना चाहिए।  क्या ऐसा होता है? विडंबना यही है कि आज के युग में इस मर्यादा पुरुषोत्तम राम की धरती पर ऐसा शायद ही होता हो। जहां अध्यात्म मनुष्य अपने अन्दर छिपे हुए दुर्गुण; काम, क्रोध, लोभ, मत्सर, हिंसा, किसी को पीड़ा देना, किसी को धोका देना, छ्ल कपट, किसी की निंदा करना आदि अनेकों अवगुणों से मुक्ति पाने लगता है, वही राजीतिक दर्शन आज  राजानेताओं को इन्हीं अवगुणों में लिप्त करने लगता है। मनुष्य राजनीति में झोला लेकर निकलता है, लेकिन चन्द वर्षों में अपनी सम्पत्ति में दिन दुनी रात चौगुनी बढ़त कर धन कुबेर पन जाता है। अपने भाषणों में और बयानों में जन सेवा और राष्ट्र सेवा की बात करता है, स्वतः को गरीबों का मसीहा कहता है, लेकिन यथार्थ भिन्न होता है। यदि वह सच में जनता का मसीहा  होता तो उसकी व्यक्तिगत और सगे सम्बंधियों की सम्पत्ति में कई गुना वृद्धि कैसे हो जाती? वह राष्ट्र को जांत पांत, धर्म, भाषा, दलित, महादलित आदि सम्प्रदायों की कुंठित दिवारों में बांटकर सिर्फ वोट प्राप्त करना चाहता है। वोट के लिए वह राष्ट्र को विखंडित करने तक की बात कर बैठता है; शत्रु राष्ट्र से और राष्ट्र विरोधी ताकतों से हाथ मिला बैठता है। वह राष्ट्र में दंगे करवाकर अराजकता फैलाने से भी नही चुकता। उसका राजनीतिक दर्शन झूठा है, मात्र एक दिखावा है। परिणाम स्वरुप राजनीति एक बेड वर्ड, गंदा शब्द (Bad Word) बन गया है, जिससे आम आदमी राजनेताओं को हमेशा शक की नजर से देखता है।

हर व्यक्ति को उसके अच्छे चरित्र और आचरण के लिए अपने अध्यात्म, अपनी अन्तरआत्मा से जुड़ा होना चाहिए। शायद इस जुड़ाव की कड़ी राजनेताओं में है ही नही।  उनके चारित्रिक पतन का मूल कारण उनका अध्यात्म से विमूख होना ही है। वह अपनी स्वतः की पहिचान भूल चुका है।  सत्ता की लोलुपता, अथाह संपत्ति की चाह और लालच, लूट खसोट और बेइमानी की राजनीति और अन्य पतित वासनाओं ने उसकी अन्तरआत्मा की आँखे छिन ली है। वह अंधा और मदमस्त हो चुका है। वह मरते दम तक सत्ता सुख भोगना चाहता है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी शासन करना अपना पैदायशी अधिकार समझता है। वह एक सामान्य व्यक्ति नही बल्कि एक व्ही आई पी और  ०ही व्ही आई पी  बन चुका है। वह आम जनता के लिए माँई बाप बन जाता है। वह अपने को शासक समझता है और बाकी सबको गुलाम समझता है। ये लोग भारत छोड़ चुके अंग्रेजी शासकों की मानसिकता की बिमारी से पीड़ित है। एक नया राजनेता भी जब आम आदमी की बात कर और इमानदारी की कसमें खाकर राजनीति में प्रवेश करता है, वह भी इन्हीं रंगों में रंग जाता है। इनके सुधरने के कोई आसार भी नही दिखते। राममनोहर लोहिया की बातें आज भी सच है। उनके अनुयायी भी गुड पालिटिक्स भूल चुके है।

क्या हमारी शिक्षा प्रणाली इसके लिए दोषी है? क्या हमारे समाज में और घरों में नैतिक शिक्षा की कमी है? क्या अध्यात्म की टूटी हुई कड़ी को जोड़ने की जरुरत है? क्या राममनोहर लोहिया के विचारों के अनुसार धर्म के पतन को भी पुनः जीवंत करने की जरूरत है? क्या ईमानदारी, नैतिकता और सुचिता को राजनीति में पुनः प्रस्थापित करने की जरूरत है? ये सब प्रश्न चिन्तन के विषय है। भारत के राजनेताओं और हर नागरिक को इन पर गहन  चिन्तन करना चाहिए। आज  भी गुड पालिटिक्स और बैड पालिटिक्स पर समुद्र मंथन नही वैचारिक मंथन की जरूरत है।

शायद राजनीतिक अध्यात्म के प्रति सच्चे समर्पण और लुप्त हो चुकी कड़ी को जोड़ना ही अंतिम पर्याय है!

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