Thursday 18 August 2016

बिरुल बाजार-जातीय राजनीति

हम लोग अभी भी जातीय राजनीति में बंधे हुए है। गाँव में अपने समाज के बीच पहुंचते है तो अलोने, अलोनकर, अमरघडे, बारमासे, बनकर, बनाईत, सातपूते, कनेरे, वाडबुधे आदि दलों में बँट जाते है। इनमें भी उँच नीच की श्रेणियां बना देते है। बाहर निकलते है तो लोन्हारे, फूल, गाशे,..... और आगे गाँव, शहर, भाषा, प्रांत और प्रदेश में बँट जाते है। यहाँ भी उँच नीच की श्रेणिया पीछा नही छोडती। वास्तव में तो हम भारतीय कभी बन ही नही पातें। कहीं यही मानसिकता हमें एक मजबूत समाज और राष्ट्र बनने में आड़े नही आ...ती? क्या यही विभाजन हमें एक दुसरे की टांग खिंचने के लिए प्रेेरित तो नही करते? ये बातें क्या हमें अन्दर झांकने को बाध्य नही करती? क्या महात्मा ज्योतिबा फूले ने इस सामाजिक विभाजन और उँच नीच की दिवारों को गिराने का प्रयत्न नही किया? हम सबको इस पर विचार करना चाहिए।तभी हम कुंठित विचारधारा से मुक्त हो पायेंगे।सही अर्थों में स्वतंत्र हो पाएंगे। मेरी बात कई लोगों को एक आलोचनात्मक प्रहार लगेगी। लेकिन मै समझता हूँ कि इस ग्रुप से जुड़े सभी मित्र एक प्रबुद्ध वर्ग में आते है, इसलिए उन्हें विशेष आत्म चिंतन की जरुरत है।

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